अन्नदाता की व्यथा

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टुकड़े-टुकड़े हुई मेदिनी , कैसी ये लाचारी है।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे , कोई विधवा नारी है।

शीश पकड़ बैठा किसान है, प्रश्न हजारों साल रहे ।
कैसे अन्न उगाऊँ मैं यदि ,सूखे जैसे हाल रहे।
बिन बरसे ही मेघ सिधारे, प्यासी धरा हमारी है।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे, कोई विधवा नारी है।

कर्जदार था पहले से ही, धरती माता रूठ गई।
कैसे मैं परिवार चलाऊँ, आस अन्न की टूट गई।
व्यथा वंश की शूल चुभाए, भार हृदय पर भारी है।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे, कोई विधवा नारी है।

जल बिन जीवन हुआ असंभव, चमत्कार विधिना कर दे।
कहीं पेड़ से लटक न जाऊँ, खेतों में पानी भर दे।
पानी लेकर अन्न दान दूँ, उतरे सभी उधारी है।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे, कोई विधवा नारी है।

करुण पुकार न पहुँची उस तक,जो जग का
पालनहारा।
समाधान जब नहीं हुआ तो, तरुवर पर फंदा डारा।
झूल गया यूँ कृषक निशा में, गृह में सुता कुँवारी है।।
ऐसे उजड़े खेत कि जैसे, कोई विधवा नारी है।

माया अग्रवाल
विशाखापट्टनम

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