‘पैदल चलने वालों’ पर शायराना अल्फ़ाज़….

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छप्पर के चाए-ख़ाने भी अब ऊँघने लगे
पैदल चलो कि कोई सवारी न आएगी
– बशीर बद्र

ऐसी मजबूरी नहीं है कि चलूँ पैदल मैं
ख़ुद को गर्माता हूँ रफ़्तार में रहने के लिए
– शकील आज़मी

रिकाब-ए-ख़ाक में उलझे हैं आसमाँ के पाँव
मिरा ख़याल हवा पर है और पैदल मैं
– फ़रहत एहसास

आने न दिया बार-ए-गुनह ने पैदल
ताबूत में काँधों पे सवार आया हूँ
– भारतेंदु हरिश्चंद्र

पैदल जो आ रहा है सो है वो भी आदमी
पब्लिक से जिस ने वोट लिया वो भी आदमी
– सरफ़राज़ शाहिद

ये हवाएँ कब निगाहें फेर लें किस को ख़बर
शोहरतों का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर दिया
– राहत इंदौरी

आओ पैदल ही सफ़र के सिलसिलों को रौंद दें
बैठे बैठे बाँझ होते जा रहे हैं दोस्तो
– मरातिब अख़्तर

इस क़दर बढ़ने लगे हैं घर से घर के फ़ासले
दोस्तों से शाम के पैदल सफ़र छीने गए
– इफ़्तिख़ार क़ैसर

इक तो वैसे बड़ी तारीक है ख़्वाहिश-नगरी
फिर तवील इतनी कि पैदल नहीं देखी जाती
– जव्वाद शैख़

मैं शाहराह नहीं रास्ते का पत्थर हूँ
यहाँ सवार भी पैदल उतर के चलते हैं
– बशीर बद्र

लाखों का हक़ मार चुके हो चैन कहाँ से पाओगे
पैदल आगे सरकाओ तो फ़र्ज़ीं की भी चाल खुले
– मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

सूरज के पापों की गठरी सर पर लादे थकी थकी सी
ख़ामोशी से मुँह लटकाए चल देती है पैदल शाम
– बद्र वास्ती

बयाबाँ की तन्हाई को दूर करने की ख़ातिर
मैं तपती हुई रेत पर सदियों पैदल चला हूँ
– शहाब जाफ़री

खोज में तेरी अन-गिन ट्रामें और बसें छानी हैं
कोलतार की सड़कों पर मीलों पैदल घूमा हूँ
– सादिक़