मशहूर क्लासिक शायर दाग़ देहलवी के रूमानी शेर

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हाथ रख कर जो वो पूछे दिल-ए-बेताब का हाल
हो भी आराम तो कह दूं मुझे आराम नहीं

हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले

इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
कोई जाने कि वफ़ा करते हैं

चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई

राह पर उन को लगा लाए तो हैं बातों में
और खुल जाएँगे दो चार मुलाक़ातों में

शब-ए-वस्ल ज़िद में बसर हो गई
नहीं होते होते सहर हो गई

छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
रोज़ के नामा ओ पैग़ाम बुरे होते हैं

शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई

देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
मैं भी क्या वादा तुम्हारा हूँ कि टल जाऊँगा

उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं….